Category: प्रवासी साहित्य

तुम और मैं – (कविता)

तुम और मैं तुम और मैंएक अनोखी पहेलीतुम, मैं और बीता हुआ वह क्षणएक खुबसूरत धरोहर,बीते हुए वो क्षणसूई और धागे सेमैने कई बारस्मृति के आँचल परसिं देने की कौशिश…

प्रेम गीत – (कविता)

प्रेम गीत मन की गहराई मेंआँखों के द्वारों सेतुमने चुपचाप अनजानें मेंमेरे भावों के कोनों को छू करहै आज विवश सी बांधीमेरे जीवन की लहरेंजो ऊँची और नीची बिखरींतट से…

अनुभूति – (कविता)

अनुभूति आह वेदने अश्रु चुरा तुमआज हंस रही मादक हासअरि खोजती नटखट सीतुम अनुभावों के आहत दाग,आज खड़ी तुम समय ‘शील’ परठिटक-ठिटक कर करती हासअनुभवों के चषक बेंचक्या करती जीवा…

मधु स्मृति – (कविता)

मधु स्मृति अवसादों की भीड़भाड़ मेंऔर विषाद के परिहास मेंप्राणों के सूने आंगन मेंअश्कों के बहते प्रवाह मेंमधु स्मृति !तुम थोड़ा मन बहलादो,तुम थोड़ा मन बहलादो,आज बहकती सी यादों मेंआज…

परछाइयाँ – (कविता)

परछाइयाँ नापती पसीने से,तर बूंदें, कहीं शरीर पर,अनायास चल पड़़ती धार,सूरज ताप से,भूख के संताप से,तपती देह को,घटती, बढ़ती परछाइयाँ। सुबह उठ,कर, झाड़ साफ, झोंपड़ी,राख सनी रुखी रोटी,मिर्ची की महकलहसुन…

खजुराहो – (कविता)

खजुराहो खजुराहो,उनके लिएअद्भुतकिंतुअवांछितऔरघृणास्पद रहा, जो-नहीं रह सकते थेवासना मुक्तक्षण भर भी। उनका चलता तोफिंकवा देतेउसेसागर की अतलगहराइयों में,जहाँ बड़वानलनिगल जाताउन कामुक मूर्तियों को।सोख लेताउसका अध्यात्मजिसके बिनाकरवट हीनहो जाती है दुनिया।…

मैं जनतंत्र हूँ ! – (कविता)

मैं जनतंत्र हूँ ! मैं जनतंत्र हूँ !लोग मुझे-लोकतंत्र,गणतंत्रसंघतंत्र, औरअंग्रेज़ी मेंडेमोक्रेसी भी कहते हैं।मैंने स्वयं को कभी नहीं देखा,मेरा मुख,मेरे कर-कमल,मेरे चरण, औरमेरा उरु प्रदेशसभीवास्तु पुरुष की भाँति अदृश्य हैं।…

मर्यादा पुरुषोत्तम – (कविता)

मर्यादा पुरुषोत्तम राम!बड़े मौलिक शिल्पी हो,बड़े कलाकार भीशील, शक्ति और सौन्दर्यके अधिष्ठातामर्यादा पुरुषोत्तम भी। आदर्श की धुरी होया धुरी के आदर्श, पता नहीं!पर सब तुम्हारे चरित की छाप है-अनवरत, काल…

अंकुश – (कविता)

अंकुश सबका है रक्षकजगती का है वह प्राणदुखों को दूर करता हैवही सुख सागर बनता है…! वही, जो व्याप्त है सर्वत्रवही उत्पत्तिकारक हैसभी में है परमवह श्रेष्ठवही तो शुद्धस्वरूपा है।…

सन्मार्ग – (कविता)

सन्मार्ग हे नाथ, दिखा दो राह मुझे…! जान न पाया इस जगती कोजिसका ओर न छोरमाना इसको मैंने अपनाक्या-क्या दुखद न पायाकेवल अपनी अजानता के-कारण जनम गँवाया। जब से आया…

लिंगभेद : समझ प्रमाद – (कविता)

लिंगभेद : समझ प्रमाद है समझ ही का केवल प्रमादलिंगभेद, नहीं है अभेद,दोनों की शक्ति मिल,बनता जीवन अभिषेक। प्रसव पीड़ा की सुन किलकारी,एक ही जिज्ञासा, मन की भारी,लिंग की है…

वीणावादिनि – (कविता)

वीणावादिनि वीणावादिनि शत-शत नमन!कैसे करूँ वंदना तिहारीमैं अबोध बालक महतारीशरणागत, हे मेरी माते-शरण तिहारी आया हूँ। तुलसी-वाल्या-कालीतेरी कृपा निराली,वही कृपा हे हंसवाहिनीदे अबोध के दुख हर ले। वीणावादिनि! पद्मासना!सुन ले…

प्रवासी भारतीय  तू…! – (कविता)

प्रवासी भारतीय तू…! प्रवासी भारतीय तूअपनी पैतृक जड़ों से यूं जुड़ तूभेड़ बकरी की तरहमत कर अंधानुकरण यूँ..अदम्य साहस, समर्पण, धैर्य सेलिख अपनी नई दास्तां तू..प्रवासी भारतीय तू… किसी भौगोलिक…

नदी – (कविता)

नदी हँस समुद्र ने पूछा यूँमुझसे प्रश्न कई बार-ज्यूँवाह से आह तक ..तूआह से वाह तक.. क्यूँ नदी-धारा-मीठी-सी-तूअपने गीले-मीठे-होठों को यूँक्यूँ नमकीन करने चली आती तू ..? अपने प्रेमी-पर्वत को…

अधूरी  कविता – (कविता)

अधूरी कविता बस एक अधूरी कवितासुनानी है तुम्हें..शब्द -निशब्द सेबोलती खामोशी कोशायद पढ़ सके हम जहां..बस वही एक अधूरी कविता.. ख्वाहिशें पिघलती हुईबढ़ती आंखों की नमीशब्दों की रूह कहींदिल में…

आहिस्ता-आहिस्ता – (कविता)

आहिस्ता-आहिस्ता दर्द के बिस्तर परखामोशी की चादर तानमोहब्बतें चांद का उगनादेखते रहे हम आहिस्ता-आहिस्ता पिघलती हुई ख्वाहिशों कीचांदनी में..तारों ने सूनी सीशहनाई यूँ कहीं बजाई..!सुनते रहे जिसे हम आहिस्ता-आहिस्ता ख्याल…

वह क्यूँ..? – (कविता)

वह क्यूँ..? अजीब कशमकशज़िंदगी की..थी, मंजिल की तलाशमें, मैं कहीं..! तुम क्या मिलेखुद में कहीं खुदतुमको ढूंढते ढूंढते..खुद मे जैसे खुदा ढूंढना हो ऐसेइबादत बन गया…! यूं तो तलाश मेरी…

लम्हा.. लम्हा..! – (कविता)

लम्हा.. लम्हा..! लम्हा-लम्हा यूं कटता रहावक्त हाथों से ज्यूँ फिसलता गया ..! न जाने क्यूँ हमने वक्तको, वक़्त से देकर वक़्तवक़्त से ही यूँ खरीद लिया ..! ऐसी बेची जाने…

मिट्टी – (कविता)

मिट्टी खेलते-खेलते तुम से हीखाते-खाते मिट्टीतुम कब बन गईंसबसे अच्छी दोस्त मेरी..! लिबास पर बिखरीकेशविन्यास पर चिपकीहथेलियों में रमीतो मेरी रूह में कहीं जमी…! जाना कहीं मैंने यूँ हीतुझमें डूबने…

वज्रपात – (कविता)

वज्रपात कल्पनातीत कालातीतसभा में खड़ी सोचरही हूं मैं…हे माँ कुंती !तुमने मुझे क्या से क्याबना डालाकहां से कहां ला डाला..!! ‘बांट लो’ -कहते ही तुमनेमेरा वर्तमान – भविष्यपतनागर्त कर डालातुमने…

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