दीपक और सूरज
सूरज कहता धन्य दीप तुम, धन्य तुम्हारा त्याग से नाता जब मैं चलकर थक हूं जाता, दीप तब अपना तन पिघलाता बना तेल बाती की सेना, चल पड़ते हो तान…
हिंदी का वैश्विक मंच
सूरज कहता धन्य दीप तुम, धन्य तुम्हारा त्याग से नाता जब मैं चलकर थक हूं जाता, दीप तब अपना तन पिघलाता बना तेल बाती की सेना, चल पड़ते हो तान…
सुबह के आठ बजते-बजते सूरज भड़भूजे की भट्ठी की तरह दहकने लगा था। वह पूरा जोर लगाकर लगभग भागते हुए, पीछा कर रहे सूरज के लहकते गोले की लपट से…
1) मीठे हैं बोल मिसरी रहे घोल मन अमोल (2) वर्षा का पानी देता है जिंदगानी यही रवानी (3) ये अमराई न अगर बौराए कैसे दे साए (4) है अंहकार…
हमारी पूरी दुनिया में इस सदी में भयावह स्थिति तब बन गई, जब समस्त विश्व कोरोना जैसी महामारी की चपेट में आ गया और किसी के पास इससे बचने का…
गहराई के खोने का दुःख नदी ही जान सकती है, गहराई ही उसकी तिजोरी थी जहाँ वह सहेजती थी—पुराण और इतिहास रहती थी अपने जाये जलचरों संग नदी बार-बार टटोलती…
इस बदलते परिवेश के कारण मैं बदल गई हूँ लोगों का पता नहीं पर ‘मैं’ मैं न रहकर कुछ और हो गई हूँ । पहले मुस्कराने की कोई वजह नहीं…
अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई; स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार मानो सोच के घोड़ों की…
दिव्या माथुर समय तेजी से बदल रहा है, जाहिर है कि हमारे साहित्य में भी यह बदलाव, व्याकुलता और बेचैनी छलक रही है जो हिन्दी साहित्य को अपनी मौलिकता से…
लोरी निंदिया बनके तेरी पलकों में छिप जाऊंतू जागे मैं जागूं, तू सोए सो जाऊंकाली रात की अलकें भारी भारीतेरी आँखें हैं कारी कजरारीभोर किरण बन आऊंतुझको चूमूं जगाऊँतू जागे…
आत्महत्या के बीज सुना हैभारत बड़ी तरक्की कर रहा है जिसे देखो ऊपर, ऊपर और ऊपर हीचढ़ रहा हैसुना है किसान अब अपने बीज नहीं बो सकते न ही बांट…
मैं चील हूँ मैं एक चील हूँजो एक पीड़ादायी मृत्यु से जीत आईघायल हुई, हाँ, बेहद घायल,किन्तु मैंने पुन: सीखे कौशलऔर देखो न, मैं कितनी तैयार हूँअब तो मृत्यु के…
कढ़ी आज सुबह मैंने कढ़ी बनाईछोटी छोटी गोल मटोल पकौड़ियांयूं खदक रही थीं पतीले में ज्यूं फुदकते थे बच्चे बरसात से भीगे आंगन मेंऐसा आल्हादित था मन कि सारे मुहल्ले…
दस्तक न सुने तो कोई क्या कीजेदस्तक देने में हर्ज़ है क्याहम खुशी खुशी भुगतेंगे इसेजो मिट जाए वो मर्ज़ है क्यादिल माँगा, जां हमने दीये छोटा मोटा क़र्ज़ है…
रचनात्मक अवरोध (writer’s block) बाहर हल्कीपर मन में भारी बारिश हो रही हैकागज़ की नाव पर सवार शब्दतेज़ी से बहे जा रहे हैंमैं उन्हें बचाने के लिएभाग रही हूँ छपाछपनाव…
शब्दकोष शब्दकोष वह अद्बभुत था, ‘युद्ध’ शब्द उसमें न था‘शत्रु’ का था न अता-पता, ‘बारूद’ बेचारा क्या करता’घृणा’ न थी न ‘द्वेष’ वहाँ, ‘आहें’ थीं न ‘बीमारी’न ‘आँसू’ थे न…
मेरी खामोशी मेरी खामोशीएक गर्भाशय हैजिसमें पनप रहा हैतुम्हारा झूठएक दिन जनेगी येतुम्हारी अपराध भावना कोमैं जानती हूँ कितुम साफ़ नकार जाओगेइससे अपना रिश्तायदि मुकर न भी पाये तोउसे किसी…
लौट आई हूँ लन्दन लौट आई हूँ लन्दनछोड़ के वृन्दावनसाफ़-सुथरी पक्की सड़क परहरे और घने दरख्तों से घिरेएक बेधूल और सुसज्जित घर मेंजहाँ गर्मी में पसीना नहींन ही सर्दी में…
विस्मृति के द्वार: बाबा-अम्मा और मैं –दिव्या माथुर ये संस्मरण 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत के हैं। पड़दादा और पड़दादी को मैंने केवल फ़ोटोज़ में ही…
स्वाति शुरू से ही जानती थी कि इवा उसकी अपनी माँ नहीं है। मगर जबसे तेरह की हुई तो उसके अवचेतन मस्तिष्क में सुप्त पड़े कुछ प्रश्न नई चेतना पा…
पतझड़ जीवन की साँझ वेला मेंदेह के वृक्ष सेभूरे – पीले पत्तों साकुछ – कुछ झरने लगा ! आँखों की रोशनीकम – सी हुईतो श्रवण शक्ति क्षीण अंग – प्रत्यंग…